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सूर के श्याम | Sur Ke Shyam

सूर के श्याम | Sur Ke Shyam

सूरदासजी नेत्रहीन थे। कृष्ण के परमभक्त। एक जगह भजन करने गये। बहुत रंग में आये। समय बीतता चला गया। उन्होंने यह माना कि सभी बैठे हुए हैं। भजन सुन रहें है। परन्तु रात के तीन बज गये। इसलिए सब सो गये, केवल सुरदासजी प्रभु में लीन होकर गाते रहते है। इस तरह चार बजे। सुरदासजी के पद पूरे होते ही। किसी की आवाज नहीं आई। नीरव शांति थी। सूरदासजी ने माना कि सब लोग सो गये है। अब घरे जाना चाहिए। पर सोये हुए को नींद में से कैसे जगाया जाये!
वह उठे। एक हाथ में एकतारा और दूसरे हाथ में लकडी। लकडी के सहारे धीरे-धीरे वह बाहर निकल गये और अंधकार में चलने लगे अपनी झोंपडी की ओर। प्रभुनाम जपते-जपते वह जा रहे थे। वह रास्ता भूल गये। जिस रास्ते पर वह जा रहे थे वहाँ कुँआ आता था। धीरे-धीरे सूरदासजी कुँए की तरफ जाने लगे। उनको कुछ पता नहीं था बस गोविन्द – गोविन्द कहते चले जा रहे थे। एक कदम उठाने के बाद दूसरा कदम उठाते तो सीधे कुएँ में…. और प्रभु को निर्गुण में से सगुण में आना पडा। जैसे ही दूसरा कदम उठाया तो भगवान को प्रगट होना पडा।
प्रभु ने उनकी लकडी पकडी और उनको दूसरी दिशा की ओर ले गये। सूरदासजी ने पूछा, “कौन है?” छोटे बच्चे की आवाज आई,”मैं बाबा।” सूरदासजी को लगा कि किसी बच्चे मेरी लकड़ी पकड़ ली है। उन्होंने सवाल किया, “तूं क्यों जागता है? यहाँ कहाँ से आया?”
बालक ने कहा, “बाबाजी, मुझे आपके पद बहुत अच्छे लगते है। उन्हें सुनने के लिए आया।” ऐसा कहकर पद के विषय में वे चर्चा करने लगे।
सूरदासजी को लगा कि संसारी बालक इतनी रात अकेला नहीं जागता होता है। उसके कंठ में मिठास नहीं होती। उन्होंने परिचय माँगा, “बेटा! तेरा नाम क्या है?
बालक ने कहा, “आप जिस नाम से बुलाओगे वह नाम चलेगा।”
सूरदासजी ने जाँचा कि जिसके भजन गा-गाकर जीवन बीत गया वह मुरलीधर आया लगता है। इसलिए उन्होंने प्रभु के साथ बातें करते हुए धीरे धीरे लकडी पर से हाथ सरकाने लगे। सूरदास माना कि इस तरह मैं उनके हाथ पकड लूंगा। परन्तु जहाँ लकडी के किनारे आकर हाथ पकडने लगे तो प्रभु अद्रश्य हो गये। सूरदासजी आवाज देने लगे पर किसी की आवाज उन्हें सुनाई नहीं दी। सूरदासजी को यकीन हो गया कि प्रभु ही थे। वे एकतारा और लकडी रखकर बैठ गये। उनकी आँखों में से आँसू बहने लगे और वे कहने लगे:
“मैं वृद्ध हूँ, अँध हँ, यह तम जानते हो। मैं थोडे ही तुम्हारे पीछे दौडने वाला था और रोकने वाला था? गोविंद तुम मेरे हृदय में से निकल जाओ तो तुम्हें मर्द गिनू। बाकी तुम मेरे पराधीनपन का लाभ उठाकर भाग जाओ तो तुम्हें कैसे रोकना था?”
और प्रभु फिर खिलखिला कर हँसने लगे। इस तरह भगवान भी भक्तों के लिए और संतो के लिए सगुण बन जाते हैं।

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