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छत्रछाया | Chhatarchhaya

छत्रछाया | Chhatarchhaya

सावधान हनुमानजी की आँखे अवध के राज दरबार में घूमने लगीं। श्री लक्ष्मणजी दिखाई देते है, शत्रुध्न दिखाई देते है पर भरतजी नहीं दिखाई दिये। भरतजी कहाँ गये? हनुमानजी की आँखे भरतजी को ढूंढ़ने लगी। हनुमानजी भीड में तलास करते है। सिंहासन के पीछे गये तो वहाँ भरतजी दिखाई दिये। भरतजी के हाथ में छत्र है। प्रभु के मस्तक पर छत्र धरे खडे है। हनुमानजी कीँ विशाल आँखें गीली हो गई।
“प्रभु आप यहाँ क्यों? आपके बिना रामराज्य न होता। पीछे क्यों खडे है?”
भरतजी ने कहा,”हनुमान, मेरे जीवन में मैंने ऐसा कुछ काम नहीं किया कि में प्रभु के सम्मुख जा सकूँ। मैं तो पीछे ही ठीक हूँ
“नहीं, आप आगे आइए ।”
“नहीं, मैं तो पीछे ही ठीक हूँ।” “नहीं, आप आगे आइए।”
“नहीं, मुझे वह छत्र धारण करने की सेवा मिली है यहीँ बराबर है । सम्मुख संत जा सकते है।”
हनुमानजी को अच्छा नहीं लगा। इसलिए आगे आकर रामजी को कहा, “महाराज, भरतजी पीछे खडे है। आप उन्हें आगे बुलाइए।”
रामजी ने हनुमान को कहा, “भरत बराबर बैठा है।”
“महाराज आप भी निष्ठुर?”
राम बोले, “नहीं, हनुमान! बताओ, भरत क्या कर रहा है?”
कहा, “आपके ऊपर छत्र रखा है।”
“बस! मुझे तुझे यही कहना है। भरत का शिरछत्र न होता तो इस देश में रामराज्य न होता। यह तो मेरे उपर एक संत का छत्र है।
इसलिए रामगद्दी पर शासकों को बैठना चाहिए पर छत्रछाया तो संतों की होनी चाहिए। तभी रामराज्य हो सकता है।”

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