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आँवला नवमी व्रत कथा | Amla Navami Vrat katha

आँवला नवमी व्रत कथा | Amla Navami Vrat katha
आँवला नवमी की दो कथायें प्रचलित हैं-

साहूकार की कथा
प्राचीन समय में काशी नाम के एक नगर में एक वैश्य अपनी पत्नी के साथ निवास करता था। वैश्य बहुत ही धार्मिक और सदाचारी था। उस वैश्य के कोई संतान नही थी। इस कारण से उसकी पत्नी और वो दोनों दुखी थे।
संतान प्राप्ति के लिये उन्होने बहुत से उपाय किये, परंतु उन्हे सफलता नही मिली। एक दिन उन्हे किसी ने कहा कि अगर तुम संतान प्राप्ति की इच्छा से भगवान भैरव को किसी बालक की बलि चढ़ा दो तो तुम्हे संतान अवश्य प्राप्त होगी।
धर्मात्मा वैश्य ने ऐसा कार्य करने से इंकार कर दिया। किंतु उसकी पत्नी ने मन ही मन ऐसा करने की ठान ली। एक दिन मौका पाकर उसने भैरव जी के नाम से एक बालक की बलि दे दी। एक बालक की हत्या करने के कारण वो पाप की भागी हो गई और उसके पूरे शरीर में कोढ़ हो गया।
वैश्य की पत्नी ने सारी बात अपने पति को बताई तो उसने भी उसे त्याग दिया। वैश्य ने अपनी स्त्री को कहा, ”ब्रह्म हत्या, गौ हत्या एवं बालक वध बहुत ही बड़े और अक्षम्य अपराध हैं। तू इसके प्रायश्चित के लिये गंगा नदी पर जाकर तपस्या कर।“ वैश्य की पत्नी ने वैसा ही किया।
वहाँ उसे देवी गंगा ने आँवला नवमी पर आँवले के वृक्ष का पूजन करने के लिये कहा। उसने पूरे विधि विधान से आँवला नवमी का व्रत एवं पूजन किया। उसके प्रभाव से वो रोग-मुक्त हो गई और उसके पति ने भी उसे स्वीकर कर लिया। प्रभु कृपा से उसकी संतान की कामना भी पूर्ण हो गई।

राजा आँवलिया की कहानी
प्राचीन समय में एक बहुत ही दानवीर राजा हुआ करता था। उसका नाम आँवलिया था। उसका नियम था, वो प्रतिदिन स्वर्ण के एक मन आँवले लोगो को दान करने के उपरान्त ही भोजन करता था।
राजा के द्वारा इतना स्वर्ण दान करने से राजा के पुत्र और पुत्रवधु चिंतित रहते। एक दिन राजा की पुत्रवधु ने अपने पति से कहा कि यदि इस प्रकार महाराज स्वर्ण दान करते रहे तो सारा राजकोष रिक्त हो जायेगा और हम लोगो का क्या होगा? राजकुमार अपनी पत्नी की बातों में आगया और उसने अपने पिता की राजगद्दी पर कब्जा करके उन्हे राज्य से निकाल दिया।
राज्य से निकाले जाने के बाद राजा और रानी चलते-चलते एक वन में जा पहुँचे। उस दिन स्वर्ण दान ना करने के कारण राजा ने भोजन भी नही किया। उसकी ऐसी निष्ठा और प्रतिबद्धता देखकर भगवान ने राजा को स्वप्न में दर्शन देकर कहा, ”राजन! जहाँ तुम रूके हो, यही एक आँवले का वृक्ष है। इससे तुम्हे प्रतिदिन स्वर्ण के आँवले प्राप्त होंगे। जिससे तुम पहले की भांति दान-पुण्य कर सकोगे।“ जब राजा की आँख खुली तो वो स्वर्ण के आँवलों का पेड़ देखकर गद्गद्‌ हो गया।
उसने पूर्व की भांति पुन: प्रतिदिन एक मन स्वर्ण के आँवले दान करना आरम्भ कर दिया। वो वही उस जंगल में महल बनाकर रहने लगा। धीरे-धीरे वहाँ पर एक सुंदर नगर बस गया।
उधर राजा के पुत्र ने जिस राज्य पर कब्जा किया वो राज्य उससे जाता रहा और उसकी स्थिति भिखारी जैसी हो गई। भटकते-भटकते वो अपने पिता के नगर में ही पहुँच गया। राजा-रानी ने अपने पुत्र और पुत्रवधु को पहचान लिया और उनको ऐसी अवस्था में देखकर उन्हे बहुत दुख हुआ। जब राजा के पुत्र ने अपने पिता का वैभव देखा तो देखता ही रह गया। उसने अपने माता-पिता से क्षमा माँगी। राजा-रानी ने भी अपने पुत्र-बहू को क्षमा कर दिया। उसके बाद वो सभी सुख से रहने लगे।

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