ऋषि पंचमी व्रत कथा | Rishi Panchami Vrat Katha
ऋषि पंचमी व्रत कथा (1)
विदर्भ देश में उत्तक नाम के एक सदाचारी ब्राह्मण निवास किया करते थे। उनकी पतिव्रता नारी सुशीला से एक पुत्री और एक पुत्र का जन्म हुआ था। पुत्र सुविभूषण ने वेदों का सांगोपांग अध्ययन किया। कन्या का समयानुसार एक सामान्य कुल में विवाह कर दिया गया, पर विधि के विधान से वह कन्या विधवा हो गई, तो वह अपने सतीत्व की रक्षा पिता के घर रह करके करने लगी।
एक दिवस कन्या माता-पिता की सेवा करके एक शिलाखण्ड पर शयन कर रही थी तो, रात भर में उसके सारे शरीर में कीड़े पड़ गए, सुबह जब कुछ शिष्यों ने उस कन्या को अचानक इस हालत में देख उसकी माता सुशीला को निवेदन किया कि माता गुरु पुत्री के दुःख को देखिये। गुरु पत्नी ने जाकर पुत्री को देखा और अपनी पुत्री की अचानक यह दशा देख के नाना प्रकार से विलाप करने लगी और पुत्री को उठाकर ब्राह्मण के पास लाई। ब्राह्मण भी पुत्री की दशा देखकर अति विस्मय को प्राप्त हुए और देखी हुए, तब ब्राह्मणी ने हाथ जोड़कर कहा- महाराज! यह क्या कारण है कि इस पुत्री के सारे शरीर में कीड़े पड़ गए ?
तब ब्राह्मण ने ध्यान धरके देखा तो पता चला कि इस पुत्री ने जो सात जन्म पहिले ब्राह्मणी थी तो एक दिन अजस्वला होते हुए भी घर के तमाम बर्तन, भोजन, सामग्री छूली और ऋषि पंचमी व्रत को भी अनादर से देखा, उसी दोष के कारण इस पुत्री के शरीर में कीड़े पड़ गए क्योंकि रजस्वला (रजोधर्म) वाली स्त्री प्रथम दिन चांडालिनी के बराबर व दूसरे दिन ब्रह्मघातिनी के समान व तीसरे दिन धोबिन के समान शास्त्र दृष्टि से मानी जाती है। तुम्हारी कन्या ने ऋषि पंचमी व्रत के दर्शन अपमान के साथ किये इससे ब्राह्मण कुल में जन्म तो हुआ, पर शरीर में कीड़े पड़ गए हैं।
तब सुशीला ने कहा- महाराज! ऐसे उत्तम व्रत को आप विधि के साथ वर्णन कीजिए, जिससे संसार के प्राणीमात्र इस व्रत से लाभ उठा सकें। ब्राह्मण बोले- हे सहधर्मिणी! यह व्रत भादमास की शुक्ल पक्ष की पंचमी को धारण किया जाता है। पंचमी के दिन पवित्र नदी में स्नान कर व्रत धारण कर सायंकाल सप्तऋषियों का पूजन विधान से करना चाहिए, भूमि को शुद्ध गौ के गोबर से लीप के उस पर अष्ट कमल दल बनाकर नीचे लिखे सप्तऋषियों की स्थापना कर प्रार्थना करनी चाहिए।
महर्षि कश्यप, अत्रि, भारद्वाज, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि, वशिष्ठ महर्षियों की स्थापना कर आचमन, स्नान, चंदन, फूल, धूप-दीप, नैवेद्य आदि पूजन कर व्रत की सफलता की कामना करनी चाहिए। इस व्रत को करके उद्यापन की विधि भी करनी चाहिये। चतुर्थी के दिन एक बार भोजन करके पंचमी के दिन व्रत आरम्भ करें। सुबह नदी या जलाशय में स्नान कर गोबर से लीपकर सर्वतोभद्र चक्र बनाकर उस पर कलश स्थापना करें। कलश के कण्ठ में नया वस्त्र बांधकर पूजा – सामिग्री एकत्र कर अष्ट कमल दल पर सप्तऋषियों की सुवर्ण प्रतिमा स्थापित करें फिर षोडषोपचार से पूजन कर रात्रि को पुराण का श्रवण करें फिर सुबह ब्राह्मण को भोजन दक्षिणा देकर संतुष्ट करें।
इस प्रकार इस व्रत का उद्यापन करने से नारी सुन्दर रूप लावण्य को प्राप्त होकर सौभाग्यवती होकर धन व पुत्र से संतुष्ट हो उत्तम गति को प्राप्त होती है।
ऋषि पंचमी व्रत कथा (2)
दूसरी कथा भविष्य पुराण में इस प्रकार आती है कि एक बार भगवान कृष्ण से महाराज युधिष्ठिर ने कहा कि वह कौन सी पंचमी है जिसके करने से नारी जाति दोष से मुक्त हो करके महान् पुण्य को प्राप्त होती है आप मुझे संक्षेप में श्रवण कराइए।
तब भगवान् कृष्णजी ने कहा- राजन्! भाद्रपद मास की शुक्लपक्ष की पंचमी को सप्त ऋषि का व्रत रहने से नारी रजस्वला से ‘मुक्त होती है क्योंकि जब इन्द्र ने वृत्रासुर को मारा था, तब ब्रह्महत्या का एक भाग नारी के रज में, दूसरा नदी के फेन में, तीसरा भाग पर्वतों, चौथा भाग अग्नि की प्रथम ज्वाला में विभक्त किया था। इससे हर जाति की नारी रजस्वला होने पर प्रथम दिन चांडालनी, दूसरे दिन ब्रह्मघातिनी और तीसरे दिन धोबिन की तरह दोषी होती है। इससे उस दिन प्रति वस्त छने से अपवित्र होकर दोष होता है इस ऋषि पंचमी व्रत के करने से यह दोष मुक्त होकर नारी पवित्रता को प्राप्त होती है।
हे राजन! विदर्भ देश में एक श्येनजित नाम का राजा था और उसी राज में एक सुमित्र नाम का विद्वान ब्राह्मण था, उसकी पत्नी का नाम जयश्री था। एक दिन वह रसोई घर में रजस्वला धर्म को प्राप्त हो गई और वह समयानुसार भोजन आदि वस्तु छूती रही, इस प्रकार समय पाकर दोनों पति-पत्नी की मृत्यु हो गई। मरने पर ब्राह्मणी का कुतिया का जन्म हुआ और ब्राह्मण को बैल का जन्म लेना पड़ा, पर दोनों को अपने तप के प्रभाव से पूर्व जन्म की बातों का स्मरण बना रहा और यह दोनों प्राणी अपने ही पुत्र के घर में पुनः जन्मे।
एक दिन पितृ पक्ष में ब्राह्मण कुमार ने अपने पिता की श्राद्ध तिथि में विधि के साथ ब्राह्मण भोज रखा और अपनी पत्नी से स्वादिष्ट पकवान खीर आदि बनवाकर तैयार की। भाग्यवश एक साँप ने उस खीर में जहर उगल दिया। यह हाल वह ग्रायणी कुतिया बनी देख रही थी, तो उसने सोचा कि अगर ब्राह्मण खायेंगे तो मृत्यु को प्राप्त हो जावेंगे, इससे मेरे लड़के को हत्या का भारी पाप लगेगा इससे उस खीर को कुतिया ने जान बुझकर जूठी कर दी, उस बहू ने कुतिया को इतनी मार मारी कि उसकी कमर तोड़ दी और खीर फेंककर दूसरी बना ली, फिर श्राद्ध कर सब ब्राह्मणों को भोजन कराया।
रात को कुतिया ने जाकर अपने पूर्व पति बैल से दिन में होने वाली सारी घटना बताई, तो बैल बोला-प्रिये! तुम्हारे पाप के संसर्ग से आज मुझे बैल होना पड़ा और आज मेरे लड़के ने दिन भर मेरा मुँह बाँधकर जोता है और अभी तक एक मुट्ठी घास भी नहीं डाली, यह सारी बातें वह ब्राह्मण बालक भी सुनता रहा जिससे वह बड़ा दुःखी हुआ।
माता-पिता को भोजन देकर वह दुःखित मन से वन को चला गया। वन में जाकर ऋषियों को दंडवत करके पूछा, महाराज, मेरे माता-पिता कुतिया व बैल की योनि में हैं। वह किस प्रकार इस योनि से छुटकारा पा सकेंगे तो ऋषियों ने बताया तुम्हारे माता-पिता ने रजोधर्म दोष से कृतिया व बैल का जन्म पाया है।
इससे तुम घर जाकर विधि से उत्तम व्रत ऋषि पंचमी का करके उसका फल अपने माँ-बाप को समर्पण करो, जिससे वह पशु योनि से मुक्त होकर स्वर्ग प्राप्त करें।
मुनियों से विधि सुनकर ब्राह्मण पुत्र ने घर आकर विधि के साथ स्त्री सहित भाद्रपद शुक्ल पंचमी को ऋषि पंचमी का व्रत किया और श्रद्धा से उस व्रत का फल अपने माता-पिता को समर्पण किया जिसके प्रभाव से वे इस क्रूर योनि से छूटकर दिव्य देव विमान पर आरूढ़ हो स्वर्ग को प्राप्त हुए हे राजन! जो स्त्री इस व्रत को विधि के साथ करती है तथा श्रद्धा से सप्तऋषियों का पूजन करे वह नारी भयंकर दोष से छूटकर शीघ्र ही धन, पुत्र, पौत्र आदि सुख सौभाग्य रूप को पाती है। इस व्रत को करना नारी जाति का मुख्य कर्तव्य है।
इससे मन, शरीर आदि दोष मुक्त होते हैं। जो फल तीर्थों के करने से प्राप्त होते हैं वह इस व्रत से अनायास नारी जाति को मिलते हैं।