रामकृष्ण परमहंस और पकौडे | Ramkrishan Paramhansh Aur Pakode
सत्संग चलता हो तो भी रामकृष्ण परमहंस खडे हो जाते और पकौड़े खाने के लिए चले जाते। विवेकानंदजी, शारदाजी बहुत दुःखी होते थे। क्योंकि लोग टीका करते थे कि इतनी ऊँची स्थिति पर पहुँचने पर भी पकौडे का मोह नहीं छोड सकते! गरु की कोई टीका करे तो स्वाभाविक है कि शिष्य को अच्छा नहीं लगता। अतः विवेकानंदजी मन-मन ही दुखी होते।
एक दिन परमहंसजी को कहा, “बाबा, लोग बहुत टीका करते है। गुरुजी, आपको पकौड़े खाने को मना नहीं है। पर सत्संग पूरा होने के बाद खाइए। बीच में से खडे होकर मत जाओ। आप तो संत हो, पर हमारे दिल को दुःख पहुंचता है।” परमहंस शाँत रहे। जवाब नहीं दिया। छोडो इस बात को।
पाँच-दस दिन बीत गये। शारदाजी बैठी थीं, उनकी पत्नी। उन्हों ने भी कहा, “विवेक कहता है वह सच है। लोग बहत टीका करते है। मैं आपको रोज पकौडे खिलाउंगी, पर आप बीच सभा में से मत उठो।”
शाम का समय था। परमहंसजी ने कहा, “शारदा, सुनना है ? तो सुन लो…. विवेक, तुम भी सुनो। साधना करते-करते इतना विकास हो गया हैं कि अब शरीर में आत्मा टिक नहीं सकती। अब अनंत यात्रा का प्रारम्भ होगा। शरीर में आत्मा टिकी रहे। एकाध रोग का दोर पकडे रखता है। इस प्रकार यह पकौडे का महत्त्व है। यह छूटेगा तो मैं नहीं जी सकूंगा और आज प्रसंग आया है तो विवेकानंदजी-शारदीजी मैं कह देता हूँ कि जिस दिन मैं पकौडे को खाने से इन्कार करूँगा तो आप दोनों समझ लेना कि तीसरे दिन परमहंस नहीं रहेगा।
‘शारदाजी रो पडे। इससे न पूछते तो अच्छा था। विवेकजी भी रो पडे। बोले, “ऐसा मत बोलिए, गुरुदेव।”
और एक घटना हुई। किसी त्यौहार का प्रसंग था। शारदाजी ने बहुत सुन्दर रसोई घर में बनाई थी। पकौड़े तो खास तौर से बनाये थे। सामने बैठे हुए विवेक को कहा, “विवेक, बुला ला भगवान को। भोजन तैयार है।” विवेकानंदजी बुलाने गये। बोले, “बाबा। रसोई तैयार है।” कुछ नहीं बोले। दूसरी बार कहा, “बाबा। रसोई तैयार है।” बोले नहीं। “बाबा, चलिए ना… भोजन तैयार है।’
“विवेक, आज भोजन की इच्छा नहीं है।’ विवेकानंदजी दौडे ‘शारदाजी के पास, “माँ, भगवान भोजन से इन्कार कर रहे है।” “शारदाजी आकर कहने लगी। “भगवान, भोजन तैयार है, चलो।”
“ना, देवी, आज भोजन की इच्छा नहीं है।”
उसके बाद तीसरे दिन परमहंसजी ने देह का त्याग किया। संतों की गति बहुत गहन होती है। क्या दशा हुई होगी विवेकानंदजी की? जिसने आदमी का हाथ पकडकर पानी पर चलना शुरू कर दिया था। क्या सिद्धि थी संत पुरुष की!