प्रथम अध्याय | Pratham Adhyay
महर्षि मार्कण्डेयजी बोले- भगवान सूर्य के पुत्र सावर्णि की उत्पत्ति की कथा को मैं विस्तार से कहता हूँ, आप ध्यान से सुनिये। सूर्य की छाया से उत्पन्न सावर्णि जगज्जननी महामाया की कृपा से जैसे मन्वन्तर के अधिपति बने वह कथा सुनिये। प्राचीन काल में स्वारोचिश मन्वन्तर के चैत वंशी राजा सुरथ समस्त पृथ्वी के चक्रवती राजा हुए। वे प्रजा का अपने पुत्रों की भाँति पालन करते थे। यवन राजाओं से राजा सुरथ की शत्रुता हो गई। दुष्ट दलन राजा सुरथ से उनका भयंकर युद्ध हुआ और थोड़ी सेना होने से यवन राजाओं ने सुरथ को हरा दिया। तदनन्तर राजा अपने नगर में आराज्य करने लगा। तो भी अन्य शत्रु राजाओं ने राजा सुरथ पर चढ़ाई कर दी और नगर में भी दुराचारी मंत्रियों ने राजा का कोष, सैन्य तथा समस्त वस्तुएँ छीन लीं। तब राजा सुरथ हारकर अकेला ही घोड़े पर सवार हो शिकार खेलने के बहाने घोर जंगल में चला गया । वहाँ महर्षि मेधा का सुन्दर आश्रम देखा जो अहिंसक सिंह आदि पशुओं तथा शिष्यों और मुनियों से शोभित था। वहां बैठे हुए महर्षि मेधा को राजा सुरथ ने नमस्कार किया और मुनि से उचित सत्कार पाकर उसी आश्रम में रहा। कुछ काल के बाद फिर वह अपने राज्य तथा प्रजा की चिन्ता से विचारने लगा कि जिस राज्य को मेरे पूर्वजों ने भली भाँति चलाया और प्रजा का पालन किया, वह आज मुझसे चला गया। वे दुष्ट मंत्री राज्य का पालन धर्म नीति के अनुसार कर रहे होंगे या नहीं और मेरा मुख्य हाथी भी दुश्मनों के वश में हो जाने से क्या-क्या कष्ट भोगता होगा। जो आज्ञाकारी नौकर नित्य प्रसन्नता से धन और भोजन प्राप्त करते थे, अब उन दुष्ट राजाओं के आश्रय में रहकर कष्ट पाते होंगे। मंत्री राज्य के धन को कुमार्ग में व्यर्थ ही अपव्यय करते होंगे। जो धन मेरे पूर्वजनों ने बड़े कष्ट से संग्रह किया था सो नष्ट हो गया होगा। इस प्रकार वह राजा राज्य की सभी बातों की चिन्ता करने लगा। कुछ समय पश्चात एक दिन आश्रम के समीप एक वैश्य को आते देखा तो राजा ने उनसे पूछा कि अरे भाई ! तुम कौन हो और यहाँ क्यों आये हो ? तुम्हारा मलिन मुख शोक युक्त क्यों दिखाई देता है इस प्रकार राजा सुरथ की बातों को सुनकर उस समाधि नाम के वैश्य ने राजा सुरथ से कहा कि हे राजन् ! मैं समाधि नाम का एक वैश्य हूँ, मेरा जन्म धनवान कुल में हुआ, मेरे दुष्ट स्त्री पुत्र आदि ने मुझे धन के लोभ से घर से निकाल दिया है, मेरा धन छीन लिया और मैं धन, स्त्री, पुत्र से रहित हूँ। अब मैं अकेला दुःखी होकर इस वन में आया हूँ मुझे अपनी स्त्री बन्धुओं का कुछ पता नहीं। मैं यहाँ रहने के कारण अपनी स्त्री, पुत्र तथा स्वजनों की परिस्थिति को नहीं जानता कि वे इस समय अपने स्थान पर सुखी हैं या दुःखी। मैं यह भी नहीं जानता कि मेरे पुत्र सदाचारी हैं या व्यभिचारी। राजा बोला-जिन स्त्री पुत्रादि ने तेरे धन सम्पत्ति को छीन लिया है फिर उन्हीं के स्नेह में तेरा मन क्यों जाता है ? वैश्य बोला-आपने मेरे विषय में जो बातें कहीं वे वास्तव में सत्य हैं। परन्तु मैं क्या करूं। मेरे चित्त में कठोरता उत्पन्न नहीं होती । जिन पुत्रादि ने धन के लोभ में आकर मुझे घर से निकाल दिया है मेरा चित्त फिर भी उन्हीं में आसक्त होता है । मैं क्या करूँ ? इन स्वजनों के निर्मोही होने पर भी मेरे मन में उनके प्रति प्रेम है। मार्कण्डेय ऋषि बोले-हे द्विज श्रेष्ठ ! तत्पश्चात् राजा सुरथ और समाधि वैश्य दोनों मिलकर मेधा मुनि के समीप गये और प्रणाम करके बैठकर मेधा ऋषि से कथा प्रसंग करने लगे। राजा बोला- हे भगवन् ! मैं आपसे एक बात पूछना चाहता हूँ, आप कृपा करके बताओ हे महाराज ! मेरा मन वश मैं नहीं है इससे मुझे दुःख है। गये हुए राज्य तथा अन्य सभी स्त्री पुत्र बान्धवों की ममता मुझे अभी तक बनी हुई है। हे मुनि श्रेष्ठ ! यह जानते हुए भी मेरा स्नेह उससे अज्ञानियों की भाँति विशेष बढ़ता जाता है । और इस समाधि वैश्य को इसके स्त्री पुत्रादि ने त्याग दिया है है तथा इसे घर से बाहर निकाल दिया है। यह भी उनमें अत्यन्त आसक्त रहता है, इसी तरह हम दोनों बहुत दुःखी हैं। हे मुनि श्रेष्ठ ! उनके दोषों को जानते हुए भी हम दोनों का हृदय उनके प्रति आसक्त रहता है इतना ज्ञान होते हुए भी ऐसी ममता क्यों है । हम दोनों को अज्ञानियों की भाँति मूढ़ता क्यों उत्पन्न हो रही है ? महर्षि मेधा ने कहा-समस्त जन्तुओं को जानने योग्य ज्ञान होता है । हे राजन् ! सभी प्राणी पृथक-पृथक होते हैं कोई दिन में नहीं देखते कोई रात में नहीं देखते और कोई दिन रात में समान दृष्टि से देखते हैं पुरुष ज्ञानयुक्त है, यह सत्य है इसमें सन्देह नहीं। केवल उसमें ही नहीं सभी पशु पक्षी मृगादि में भी मनुष्य की भांति ज्ञान होता है यह स्थूल ज्ञान होता है जैसे मनुष्यों में आहार आदि की इच्छा उत्पन्न होती है वैसे ही पशु-पक्षी आदि में भी आहार, विहार, निद्रा, मैथुन आदि की इच्छा उत्पन्न होती है। ज्ञान होने पर भी पक्षियों की भाँति भूखे होने पर भी ममता वश अपने बच्चों को चोंच में स्नेह से चुगा देकर प्रसन्न होते हैं । हे राजन् ! मनुष्य भी अपने पुत्र पौत्रों से इसी भाँति बर्ताव करते हैं। वह पालन पोषण इस इच्छा से कि जब हमारी वृद्धावस्था आवेगी तब हमारा पालन पोषण वे करेंगे। क्या यह तुम नहीं देखते कि पुत्रादि उनका भरण पोषण न भी करें तो भी माता-पिता तो रखने वाली महामाया के प्रभाव से वह मोह के गढ़े में डाल दिये गये हैं। इसमें कोई आश्चर्य नहीं है क्योंकि यह भगवान् विष्णु की योगनिद्रा है । जिससे संसार मोहित हो जाता है। यही भगवान की महामाया है । वह भगवती देवी बड़े ज्ञानियों के चित्त को जबर्दस्ती खींचकर मोह में डाल देती है। इस देवी ने ही चराचर विश्व को उत्पन्न किया है ! और यही देवी प्रसन्न होकर भक्तों को वरदान देती है जिससे मुक्ति मिलती है वही मुक्ति की परम हेतु और सनातनी ब्रह्मज्ञान स्वरूपा विद्या है राजा बोला- हे भगवन् ! आप जिसे महामाया कहते हैं वह कौन सी देवी है ? वह देवी कैसे उत्पन्न हुई और उसका क्या कार्य है ? उसका स्वभाव, स्वरूप, उत्पत्ति आदि के विषय में सुनना चाहता हूँ, सो आप सभी वृतान्त मुझे सुनाइये । ऋषि ने कहा- वह देवी नित्य है और सब चराचर में व्याप्त हैं । तथापि उसकी उत्पति अनेक भांति से है, और उस कथा को तुम मुझसे सुनो। यह भगवती देवताओं की कार्य सिद्धि को उत्पन्न होती है और अजन्मा उत्पन्ना कहलाती है । जब भगवान विष्णु सम्पूर्ण विश्व को त्याग अन्त जल में योगनिद्रा में शेष शय्या पर शयन कर रहे थे उस समय विख्यात मधुकैटभ नाम के दो घोर असुर भगवान विष्णु के कान के मैल से पैदा होकर ब्रह्मा जी को मारने को तैयार हुए। ब्रह्मा जी विष्णु भगवान के नाभि कमल पर स्थित थे । उन दोनों भयंकर असुरों को मारने को आते देखकर और भगवान विष्णु को सोया हुआ देखकर ब्रह्माजी योगनिद्रा की प्रसन्नतार्थ एकाग्र मन में स्तुति करने लगे जिससे कि भगवान विष्णु के नेत्रों से भगवती योगमाया अपना प्रभाव हटा ले और भगवान जाग पड़े। वह योगमाया विश्वेश्वरी, जगत्माता, स्थिति संहार करने वाली, भगवान विष्णु की अतुल तेज वाली निद्रा स्वरूपा अनुपम शक्ति है। ब्रह्माजी बोले-हे महामाये ! तुम स्वाहा “देवताओं को पालने वाली” हो तुम स्वधा पितश्वरों का पोषण करने वाली” हो, तुम ही वषट्कार स्वर “इन्द्र को यज्ञ का हिस्सा पहुँचाने वाली” हो । अमृत भी तुम ही हो, अक्षरों में स्वर तुम्हीं हो तथा नित्य आधी मात्रा “व्यंजन” भी तुम ही हो । हे देवी! तुम ही संध्या, सावित्री और संसार की जननी हो और हे मातेश्वरी विश्व को उत्पन्न, पालन और संहार करने वाली आप ही हो, आप ही महाविद्या, महामाया, महामेधा, महास्मृति और महामोहा, महादेवी, महासुरी हो । आप ही समस्त चराचर के तीनों गुणी ‘सत्व, रज, तम’ को उत्पन्न करने वाली प्रकृति हो । आपही कालरात्रि प्रलय स्वरूप महारात्रि तथा दारुण मोह रात्रि हो। आप खड्ग, शूल, घोर, गदा, चक्र, शंख, धनुष बाण भुशुण्डी, परिध आदि अस्त्र-शस्त्रों को धारण करने वाली हो। हे देवी! आप ही सौम्यता हो तथा संसार में आप ही अति सुन्दर हो पर और अपरों में श्रेष्ठ आप ही परमेश्वरी हो जो इस विश्व की रचना पालन और संहार करते हैं उन भगवान विष्णु को आपने अपनी निद्रा वश कर लिया है। फिर भला बताइये और कौन आपकी प्रार्थना करने में समर्थ है जबकि आपने भगवान विष्णु, ईशान (शंकर) तथा मुझसे यह शरीर ग्रहण कर लिया है । आप तो अपने प्रभाव से स्वयं प्रशंसित हो। मधु और कैटभ नाम के इन महादुष्टों को आप मोह लीजिए और विश्वपति भगवान अच्युत को जगाइये। इन दोनों महाअसुरों का संहार करने के लिए भगवान को बुद्धि दीजिए। ऋषि बोले- इस प्रकार जब ब्रह्मा जी ने मधु और कैटभ असुरों के संहार के लिए तथा भगवान विष्णु को जगाने के लिए तामसी देवी की प्रार्थना की तो उसी समय भगवान विष्णु के नयन, मुख, नाक, भुजा, हृदय और वक्ष-स्थल से निकल कर अव्यक्त योगमाया उपस्थित हो गई और योगनिद्रा से भगवान जाग गये तदनन्तर भगवान विष्णु ने उन पराक्रमी वीर्यवान मधु और कैटभ असुरों को देखा। ब्रह्माजी को खाने के लिए जिनकी आंखें लाल हो रही थीं, तब भगवान विष्णु ने शेष- शैय्या से उठ उन असुरों से पांच हजार वर्ष तक बाहु युद्ध किया। अति बलशाली महा उन्मत्त दोनों असुरों को महामाया ने मोहित कर रक्खा था अतः दुष्टों ने भगवान से कहा आप हमसे वरदान मांगो। भगवान ने कहा यदि तुम मुझ पर प्रसन्न हो तो मेरे हाथ से तुम्हारी मृत्यु हो मैं तो केवल यही
वर चाहता हूँ। ऋषि ने कहा- इस भांति जब भगवान ने उनसे यह वरदान ले लिया तो वे भगवान से कहने लगे कि हमें सर्वत्र जल ही जल दिखाई देता है। इसलिए हे भगवन ! हमारा वध उस स्थान पर कीजिए जहाँ पृथ्वी पर पानी न हो। मेधा ऋषि ने कहा-तब भगवान विष्णु ने शंख चक्र, गदा धारण किए और उनसे तथास्तु कह दोनों के सिर अपनी जांघों पर रखकर चक्र से काट दिए इस प्रकार यह महामाया देवी श्री ब्रह्माजी की प्रार्थना करने पर स्वयं उत्पन्न हुई है। हे राजन् ! मैं अब इसके प्रभाव को बताता हूँ, आप ध्यान से सुनो।
॥ इति प्रथम अध्याय समाप्त ॥