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वट सावित्री व्रत कथा | Vat Savitri Vrat Katha

वट सावित्री व्रत कथा | Vat Savitri Vrat Katha

वट सावित्री व्रत विवाहित महिलाओं के लिए महत्वपूर्ण पर्व है। अखंड सौभाग्य की प्राप्ति के लिए महिलाएं वट सावित्री का व्रत रखकर पति की लंबी आयु की कामना करती हैं। लेकिन यह पूजा सावित्री और सत्यवान की कथा के बगैर अधूरी मानी जाती है।ज्येष्ठ मास की कृष्ण पक्ष की अमावस्या तिथि के दिन वट सावित्री का व्रत किया जाता है। इस दिन महिलाएं वट वृक्ष की पूजा करती हैं। मान्यता है कि वट वृक्ष में त्रिदेव का वास है। साथ ही वट वृक्ष के नीचे ही यमराज ने सावित्री को पति सत्यावान के प्राण वापस लौटाए थे। इसलिए इस दिन वट वृक्ष की पूजा और कथा का पाठ करने से महिलाओं को व्रत का पूरा फल मिलता है।

पौराणिक कथा के अनुसार, भद्र देश के एक राजा हुआ करते थे, जिनका नाम अश्वपति था। उनके कोई संतान नहीं थी इसलिए वे बेहद दुखी रहते थे। उन्होंने संतान सुख प्राप्त करने के लिए मंत्र उच्चारण के साथ प्रतिदिन एक लाख आहुति दी। ऐसा वे 18 वर्षों तक करते रहे। इसके बाद उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर सावित्री देवी प्रकट हुईं और उन्हें वर दिया कि तुम्हें एक तेजस्वी कन्या पैदा होगी। राजा ने उसका नाम सावित्री रखा।जब कन्या बड़ी हुई तो वह बेहद ही रूपवान हुई। उसके योग्य जब कोई वर ना मिला तो पिता बेहद दुखी हुए। उन्होंने कन्या को स्वयं ही वर तलाशने के लिए भेज दिया। सावित्री भटकने लगी। वहां साल्व देश के राजा था द्युमत्सेन। हालांकि उनका राज्य किसी ने छीन लिया था। लेकिन उनके पुत्र सत्यवान पर सावित्री का मन आ गया और सावित्री ने उनका वरण कर लिया। नारद जी को जब ये बात पता चली तो वह अश्वपति के पास पहुंचे। और कहा कि सत्यवान गुणवान है बलवान है धर्मात्मा है पर उसकी आयु छोटी है वह अल्पायु है। एक वर्ष बाद उसकी मृत्यु हो जाएगी। 

ऐसे में राजा बेहद चिंता में आ गए। राजा ने अपनी पुत्री को सारी बात बता दी। पर सावित्री ने कहा कि कन्या अपने पति का एक बार वरण करती है। ऐसे में सावित्री ने हठ लगा ली कि मैं सत्यवान से ही विवाह करूंगी इसलिए अश्वपति ने अपने पुत्री का विवाह सत्यवान से करवा दिया। सावित्री जब अपने ससुराल गई तो उसने अपने सांस ससूर की खूब सेवा की। समय बीतता गया। नारद मुनि ने सावित्री को पहले सत्यवान की मृत्यु के बारे में बता दिया था। ऐसे में सावित्री भी अधीर होने लगी। 

सावित्री ने तीन दिन पहले ही उपवास शुरू कर दिया। नारद मुनि द्वारा बताई गई तिथि पर पितरों का भोजन किया। उस दिन सत्यवान लकड़ी काटने जंगल गए तो उनके साथ सावित्री भी गई। जब दोनों जंगल पहुंचे तो वह पेड़ पर चढ़ गया। थोड़ी देर बाद सिर में तेज दर्द होने लगा। फिर वो नीचे उतरे और सावित्री समझ गई। सावित्री ने सिर को गोद में रखकर सहलाने लगी। तभी वहां यमराज आए और सत्यवान को ले जाने लगे। 

सावित्री भी पीछे-पीछे चल दी। यमराज बोले ये जग की रीत है पर सावित्री नहीं मानीं। युवराज पतिपरायणता को देखकर बेहद प्रसन्न हुए और बोले कि तुम वरदान मांगो तो सावित्री ने कहा कि मेरे सास ससुर वनवासी और अंधे भी ऐसे में उनके लिए दिव्य ज्योति मांगती हूं। यमराज ने वर दे दिया। परंतु सावित्री नहीं फिर भी पीछे-पीछे चलने लगी। 

यमराज ने दूसरा वर मांगने के लिए कहा तो सावित्री ने कहा कि मेरे ससुर का राज्य छिन गया है उन्हें दोबारा मिल जाए। यमराज ने ये वर भी दे दिया पर सावित्री फिर भी पीछे चलने लगी। 

तभी यमराज ने तीसरा वर मांगने के लिए कहा तो इस पर सावित्री ने कहा कि मेरे संतान हो और मैं सौभाग्यवती हो जाऊं। यमराज ने ये वर भी दे दिया। 

फिर सावित्री यमराज से बोलीं कि मैं एक पतिव्रता स्त्री हूं और आपने मुझे पुत्रवती होने का आशीर्वाद भी दिया है ऐसे में अब आप मेरे पति के प्राण नहीं ले जा सकते।  ऐसे में यमराज ने सत्यवान के प्राण छोड़ दिए और वे अंतर्ध्यान हो गए। तब सावित्री दोबारा उसी वट वृक्ष के पास आ गईं जहां पर सत्यवान का मृत शरीर पड़ा था। ऐसे में सत्यवान को जीवनदान मिल गया। ऐसे में दोनों खुशी खुशी रहने लगे। 

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