मेरी यात्रा पूर्ण हुई । Meri Yatra Purn Hui
मेरा एक मित्र है, स्नेही है। उसका नाम है बरबाद। जूनागढ रहता है। फ़कीर है। अति गरीब है।
एक बार मैंने उससे पूछा, “बरबादजी! आप पैरों में जूते क्यों नहीं पहनते हैं?”उनकी आँखों में आँसू आ गये।
वे बोले, “बापू! क्या बतायें?”
“बताइये तो सही! मामला क्या हैं?”
बोले,”मैंने एक मनौती रखी हैं कि अजमेर जाकर ख्वाजा की दरगाह पर जब तक सिर नहीं टिकाऊँगा तब तक जूते न पहनूँगा। लेकिन बहुत गरीब हूँ। पैसे तो है नहीं अजमेर जाने के लिए।
बरबादजी बहुत सुन्दर कविता लिखते हैं। उनके जितने प्रशंसक वर्ग थे उन्होंने निश्चय किया हम इसे दो-ढाई सौ रुपये एकत्रित करके दे दें जिससे वह अजमेर जा सके।
उसने खाना लिया, पैसे लिये, टिकट लिया, बिस्तर लिया और जूनागढ़ के स्टेशन से ट्रेन में बैठने जाते हैं। कई मित्र उसे छोडने आते हैं।
तब एक फकीर स्टेशन पर खडा था। उसकी आँखों में आँसू थे। बरबादजी उसके पास गये, पूछा,”बाबा! क्या बात हैं?”
बोले, “कुछ नहीं भाई।”
‘आप उदास मालूम होते हैं।”
“बताइए आप कहाँ जा रहे हो?”
फकीर ने बरबाद से पूछा। बरबाद बोले,’अजमेर जा रहा हूँ। ख्वाजा की दरगाह पर मनौती की थी। कुछ महीने हो गये, पहले सुविधा नहीं थी, इसलिए जा नहीं पाया पर अब सुविधा होने पर जा रहा हूँ।”
“अच्छा! खुशनसीब हो तुम।”
“आप, क्यों ऐसे बोल रहे हो, जैसे उदास आदमी बोल रहा हो!”
फकीर ने कहा, “मैंने भी मनौती की थी की अजमेर जाऊँ…..और ख्वाजा के वंदन करूँ। पर पैसे नहीं हैं। हमारी उम्मिदें तो खुदा जाने कब पूरी होगी।”
बरबाद की आँखों में आँस आ गये। बोले, “बाबा! ये पैसे….ये टिकट, सेब लेकर आप बैठ जाईए। आप जाईए। “बरबाद ने अपना सामान, पैसा, टिकट फकीर को देकर ट्रेन में बिठा दिया। ट्रेन चली गई।
मित्रों आवाजे लगाने लगे। बरबाद बोले, “नहीं, मेरी यात्रा पूरी हो गई। मैं जाकर आ गया। मैंने दरगाह पर सिर टिका दिया।”